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मोदी-शाह की रणनीति से लोकतंत्र पर गहराया संशय  

Democracy deepens due to Modi-Shah's strategy
गुलफशा अंसारी 

मध्यप्रदेश के गुना संसदीय क्षेत्र के नेता ज्योतिरादित्या सिंधिया का आज भारत की राजनीति में सबसे चर्चित नाम है। सिंधिया ने होली के रंग में दो तरह की स्थिति पैदा की जो कांग्रेस के लिए सरदर्दी तो भाजपा के लिए जश्न साबित हुआ। 2002 से कांग्रेस के वफादार रहे सिंधिया ने मोदी-शाह से मुलाकात के बाद बड़े ही जुझारू रूप से अपना इस्तीफा देते हुए नई पारी की शुरूआत की बात कही। यहां समझने वाली दो बात है पहली बात तो यह कि बीते 2 सप्ताह से राज्य की राजनीति ब्रेकिंग न्यूज़ का हिस्सा बनी हुई थी तो दूसरी यह कि राज्य में राज्यसभा सांसद का चुनाव होना था जिसके लिए कांग्रेस और भाजपा दोनों ही पार्टी जद्दोजहद में जुटी थी। हालांकि यहाँ यह बताना भी जरूरी है कि राज्यसभा सांसद की तीन सीटों पर दो सीटें फिक्स थी जो भाजपा और कांग्रेस के पाले में थी। यहाँ लड़ाई तीसरी सीट के लिए थी। मोदी शाह से हुई गुफ्तगू में ऐसा क्या मिला कि कांग्रेस की वफादार का तगमा लिए सिंधिया ने इस्तीफे दे दिया। इस्तीफे के बाद सिंधिया अधिकारिक रूप से भाजपा की सदस्यता भी ग्रहण ग्रहण कर ली। इसके साथ ही अनुमान है कि उन्हें राज्यसभा सांसद की चाबी भी मिल जाएगी !

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भारत एक लोकतांत्रिक देश है जहां जनता जनार्दन अपने प्रतिनिधियों का चुनाव कर उन्हें विजयी बनाती है लेकिन भाजपा कार्यकाल में राजनीति की जो बिसात देखने को मिल रही है वो एकदम जुदा है। केरल समेत कर्नाटक जैसे राज्यों में भारतीय जनता पार्टी को बहुमत नहीं मिला बावजूद इसके अपने धुर-विरोधी और विजयी प्राप्त पार्टी के लिए शतरंज की ऐसी बिसात तैयार की है कि जीतने वाली पार्टी विपक्ष में और विपक्ष वाली पार्टी सत्ता का संचालन करती नज़र आ रही है। ऐसा ही कुछ दृश्य अब मध्य प्रदेश की राजनीति में भी देखने को मिल सकता है। वैसे तो भारतीय जनता पार्टी की अधिकारिक कमान जगत प्रकाश नड्डा को सौंपी गई है लेकिन शह और मात का पूरा खेल मोदी-शाह ही रच रहे है। देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी वैसे तो दल से पहले देश कहते नहीं थकते लेकिन विधानसभा चुनाव हो या लोकसभा चुनाव पीएम मोदी किसी स्टार प्रचारक की तरह ताबड़तोड़ रैलियां करते नज़र आते है। भारत की स्वतंत्रता के पश्चात शायद ही किसी प्रधानमंत्री ने अपनी पार्टी के लिए इतना प्रचार-प्रसार किया है। नरेंद्र मोदी चुनाव के समय मैदान में तो खाली समय विदेश के दौरे तो अवकाश के दिन मन की बात करते नज़र आते है। हैरानी है कि इन सबके बावजूद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सबसे ज्यादा काम करने वाले प्रधानमंत्री है देश के !

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मीडिया अकसर केन्द्र की मोदी सरकार के नेतृत्व में भारत का कद बढ़ने की बात दोहराती रहती है लेकिन जब अंतरराष्ट्रीय स्तर पर देश की धर्मनिरपेक्षता पर सवाल खड़े किए जाते है तो मीडिया का रवैया संदेहास्पद हो जाता है। न्यायालय पर भारत सरकार की दबिश का अंदाजा जस्टिस मुरलीधरन के तबादले से लगाया जा सकता है। अब बात उसकी करते है जिसके हवाला आए दिन भारत सरकार देती रहती है। वह है राष्ट्रीयता, भारतीय संविधान, भारतीय चुनाव आयोग, जनता जनार्दन और सिद्धांत। भारत विश्व का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश है। हमारे पास दुनिया का सबसे बड़ा संविधान है। यहाँ जनता अपने प्रतिनिधियों का चुनाव करती है। चुनाव कराने का जिम्मा भारतीय चुनाव आयोग का है। विधायक हो या सांसद सभी का कार्यकाल अगामी पांच सालों के लिए होता है। एक बार चुनाव कराने के लिए कई हजार करोड़ खर्च किया जाता है। जिसका अप्रत्यक्ष तौर पर भुगतान जनता ही करती है। ऐसे में किसी एक दल और नेता के स्वार्थ के वजह से सरकार गिरना या गिराना लोकतंत्र पर चोट है। जनता जनार्दने के फैसले की अवमानना है और निरंकुश होती सरकार की व्याख्या भी। कांग्रेसी सिद्धांत को छोड़ भाजपा में शामिल हो रहे है और भाजपा कांग्रेस में। यहां विचारधारा की लड़ाई नहीं बल्कि सत्ता का मोह अधिक दिखाई देता है।

आज देश को सोचना चाहिए कि लोकतंत्र में जनता की भूमिका क्या केवल राजनेताओं के स्वार्थ की पूर्ति करना रह गया है?
क्या देश में निष्पक्ष चुनाव का बयान दोहराती चुनाव आयोग को इस तरह की दलबदल पर अंकुश नहीं लगाना चाहिए?
क्या किसी एक नेता के स्वार्थ की पूर्ति हेतू चुनाव के परिणाम से खिलवाड़ कर तोड़ मरोड़ कर पेश करना उचित है?

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