आज बात मुहर्रमुल हराम की… मुहर्रम के इतिहास की और मैदाने कर्बला की जिस के बदौलत आज इस्लाम ज़िंदा है… दोस्तों उम्मते मुसलमां यानी मुसलमान बड़ी बेसब्री से मुहर्रम का इंतजार करते हैं… मुहर्रम से ही इस्लामिक नए साल कि शुरुआत होती है… लेकिन यह नया साल और मजहबों और धर्मो से बिल्कुल अलग है.. इस दिन को अल्लाह के प्यारे नबी मोहम्मद सल्लाहू अलैही वसल्लम के नवासे और शेरे खुदा मौला अली के बेटे हजरत इमाम हुसैन की कुर्बानी को याद कर मनाया जाता है। मुहर्रमुल हराम के शुरूआती दस दिन बेहद खास है। लेकिन 10वीं तारीख को मुसलमान अलग-अलग तरीके से मनाते है… जहां शिया मुसलमान इस दिन को गम के तौर पर मनाते है वहीं सुन्नी यानी बरेलवी मसलक से ताल्लुक रखने वाले लोग इस दिन को बड़े ही गौरों फिक्र के साथ इस्लाम की सरबुलंदी के तौर पर मनाते है।
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इस दिन शिया जहाँ सड़कों पर मातम के तौर पर अपने जिस्मों को छननी करते है वहीं सुन्नी मुसलमान इस दिन जुलूस निकालकर कलामे रसूल का जिक्र करते है। मक्कातुल मुकर्रमा, मदीनातुल मुनव्वरा और कर्बला की निशानियों को ताजा करने के लिए ताजीया निकाला जाता है। जिसको लेकर अलग-अलग यकीन है.. कई लोग ताजीया को हराम समझते है जबकि शरीई मसला तो ये है कि इस तरह की निशानदेही से ईमान और कर्बला की यादें ताज़ा होती है बशर्त यहाँ पाकीज़गी का ख्याल रखा गया हो… नाच-गाना, हुड़दंग बाजी जैसी चीज़े इसमें शामिल न हो और ताजीये की वजह से किसी का नुकसान न हो तो ताजीया निकाला जा सकता है….
मुहर्रम का इतिहास जो तारीखे इस्लाम में तकयामत तक रहेगी ज़िंदा
आज से 1400 साल पहले तारीख-ए-इस्लाम में कर्बला की जंग हुई थी। यह जंग उम्मते मुसलमां और अल्लाह के राह में कुर्बान होने वाली जंग थी.. कर्बला की जमीं अल्लाह के प्यारे नबी हजरत मोहम्मद सल्लाहू अलैहिवसल्लम नवासे इमाम हुसैन और उनके 72 साथियों को शहीद कर दिया गया था। इसी शहादत की वजह से ही आज पूरी दुनिया में इस्लाम का परचम बुंलद है। कहा जाता है इस जंग और इस शहादत का वादा हजरते इमाम हुसैन ने अपने नाना हुजूर मुस्तफा सल्लाहू अलैही वसल्लम ने बचपने में ही किया था।
क्योंकि हुजूर मुस्तफा सल्लाहू अलैही वसल्लम अल्लाह के पैगंबर और प्यारे नबी है इसलिए उन्हें इस दिन का इल्म था.. हदीसे मुबारक है कि हुजूर मुस्तफा सल्लाहू अलैही वसल्लम अपने नवासे को रोता देख बेचैन हो जाते थे और वो अपनी बेटी हजरत बीबी फातिमा को इमाम हुसैन को चुप कराने को कहते क्योंकि उन्हें मालूम था कि हजरते इमाम हुसैन कर्बला के जंग में कितनी तकलीफों और आजमाइशों से गुज़रेगें।
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कर्बला की जंग शाम से हुई जो जिसे आज सीरिया कहा जाता है.. शाम में मुआविया नाम के बादशाह के मरने के बाद ये औदा उनके बेटे यजीद को मिली। यजीद बदबख्त और इस्लाम का दुश्मन था.. वो अल्लाह के राहे रास्त को छोड़ अपने नियम और कानून लोगों पर थोपता.. वह एक ज़ालीम बादशाह था जो पूरे अरब में अपना दबदबा चाहता था इसी चाहत में यजीद इस्लाम का खलीफा बनकर बैठ गया था। लोग उसके नाम से ही कांप उठते थे लेकिन उसके सामने पैगंबर हजरत मुहम्मद सल्लाहू अलैही वसल्लम के खानदान का इकलौता चिराग इमाम हुसैन बड़ी चुनौती थे।
कर्बला में सन् 61 हिजरी से यजीद ने अत्याचार बढ़ा दिया तो बादशाह इमाम हुसैन अपने परिवार और साथियों के साथ मदीना से इराक के शहर कुफा जाने लगे, लेकिन रास्ते में यजीद की फौज ने कर्बला के रेगिस्तान पर इमाम हुसैन के काफिले को रोक लिया। यजीद ने उनके सामने कुछ शर्तें रखीं, जिन्हें हुसैन ने मानने से फिर से इनकार कर दिया। शर्त नहीं मानने के बदले में यजीद ने जंग करने की बात रखी। इस दौरान इमाम हुसैन इराक के रास्ते में ही अपने काफिले के साथ फरात नदी (सीरिया) के किनारे अपने खय्याम यानी तंबू लगाकर ठहरे ये मुहर्रम की 2 तारीख थी।
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वह 2 मुहर्रम का दिन था, जब इमाम हुसैन का काफिला जिसमें उनका छह महीने का बेटा असगर भी शामिल था कर्बला के तपते रेगिस्तान पर रुका। वहां पानी का एकमात्र स्त्रोत फरात नदी थी, जिस पर यजीद की फौज ने 7 मुहर्रम से हुसैन के काफिले पर पानी पीने पर रोक लगा दी। इसके बाद भी इमाम हुसैन झुके नहीं। आखिर में 10 तारीख को इमाम हुसैन को जंग करना पड़ा। इतिहास कहता है कि यजीद की 80,000 की फौज के सामने हुसैन के 72 बहादुरों ने जिस तरह जंग लड़ी वो बताता है कि इस्लाम कभी भी बुराई के सामने नहीं झुक सकता।
इमाम हुसैन और उनका घराना अपने नाना हजरत मोहम्मद मुस्तफा सल्लाहू अलैही वसल्लम और बाबा शेरे खुदा मौला अली के सिखाए हुए उस रास्ते पर रहे जो सच और हक़ है…. अल्लाह से बेपनाह मुहब्बत में प्यास, दर्द, भूख और दर्द सब पर कामयाबी हासिल की। यजीद ने उन्हें भूखा रखा.. पानी की एक बूंद से भी दूर रखा। इमाम हुसैन का काफिला एक-एक करके खून में नहाता पर उनका इमान और यकीन जर्रा बराबर भी कम न होता… दसवें मुहर्रम के दिन तक हुसैन अपने भाइयों और अपने साथियों के शवों को दफनाते रहे और आखिर में खुद अकेले युद्ध किया फिर भी दुश्मन उन्हें मार नहीं सका।
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आखिर में अस्र की नमाज के वक्त जब इमाम हुसैन हालाते सजदे में थे तब एक यजीदी को लगा की यही सही मौका है हुसैन को मारने का। क्योंकि अगर ये उठ गया तो कोई नहीं बचेगा… फिर, उसने इमाम हुसैन पर ऐसा वार किया कि इमाम हुसैन का सरे मुबारक उनके धड़ मुबारक से अलग हो गया.. धोखे से हुसैन को शहीद कर दिया, लेकिन इमाम हुसैन तो मर कर भी जिंदा रहे और हमेशा के लिए अमर हो गए।
इसीलिए सुन्नी मुसलमान मातम नहीं मनाते क्योंकि मातम तो मरने वालों का मनाया जाता है.. जबकि हजरते इमाम हुसैन तो तकयामत तक ज़िंदा है… जबकि शिया मुसलमान मातम मनाते है.. जंगे कर्बला की इस हकीकी दास्तां से ये बात साफ है कि हुसैन जंग के इरादे से नहीं चले थे। उनके काफिले में केवल 72 लोग थे जिसमें छह माह के बेटे के साथ उनका परिवार भी शामिल था, यानी उनका लड़ाई का कोई इरादा नहीं था। सात मुहर्रम तक हुसैन के काफिले के पास मौजूद खाना-पानी खत्म हो चुका था। हुसैन जंग को टाल रहे थे। 7 से 10 मुहर्रम यानी (तीन दिन तक) हुसैन और खानदाने रसूल भूख, प्यास के शिद्दत के साथ लड़ाए लड़ते रहे लेकिन हक़ से मुहं न मोड़ा